Monday 19 December 2011

धर्म और शराब

1-माँ ने कहा था एक दिन, पीना नहीं शराब।
इसकी वजह से घर का हो, माहौल ये खराब।।
मै नहीं पिऊँगा कभी, धर्म की मदिरा,
धर्म ने बहाया यहाँ, खून बेहिसाब।।
2-बोतल वही शराब फर्क नाम में केवल।
नशा है रंग एक सा, बदले हुये लेबल।।
कोई वियर शोपेन है, ठर्रा कोई व्हिस्की।
धर्म को मैं मानता अज्ञान का दलदल।।
3-मंदिर हो गुरुद्वारा हो या मस्जिद या चर्च है।
सब हैं शराबखाने इन सबमें क्या फर्क है।।
बिन तर्क औ प्रमाण के कहता नहीं मैं कुछ।
जो सच लगा वही लिखा, इसमें क्या हर्ज है।।
4-धर्म का इतिहास देखो खून से लिखा।
दंगे फसादों में मुझे बस धर्म ही दिखा।।
धर्म ने दलितों का सदा ही किया शोषण।
धर्म की शिक्षाओं को मुझको न तू शिखा।।
5-धर्म ने ही बाबरी मस्जिद को गिराया।
धर्म ने ही सोमनाथ को था लुटाया।।
धर्म की वजह से हममें एकता न थी।
हम भी थे वीर धर्म ने गुलाम बनाया।।
6-धर्म इमारत खड़ी घृणा की नींव पर।
धर्म ने ईसा को चढ़ाया सलीब पर।।
धर्म ने गैलेलियो को यातनाये दी।
धर्म ने सुकरात से कहा तू पी जहर।।
7-धर्म ने नारी आँखों में दिया बस नीर।
धर्म ने हरने की सोची द्रोपदी का चीर।।
सब चाहते हैं कि रहें सुकून चैन से।
दो भाईयों के बीच धर्म खीचता लकीर।।

2 comments:

  1. धर्म के नाम पर किये जा रहे खिलवाड़ को अच्छी तरह व्यक्त किया है आपने

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  2. वन्दना जी,
    मेरी रचना पढ़कर प्रतिक्रिया देने के लिये आभार।

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